बीजेपी नेता रवि तिवारी ने सनातन धर्म और वैदिक शिक्षा का महत्व समझाया

बीजेपी के युवा एवं उभरते हुए नेता रवि तिवारी (Ravi Tiwary) ने आज सनातन धर्म की पृष्ठभूमि पर आधारिक वैदिक शिक्षानीति को पुनः लागू करने की सम्भावनाओ एवं आवश्यकताओं पर चर्चा की।

भारत की शिक्षा पद्धति में भले ही वैदिक पाठय़क्रम का विरोध होता हो लेकिन अमेरिका की सेटन हॉल यूनीवर्सिटी में सभी छात्रों के लिए गीता पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है। न्यूजर्सी में 1856 में स्थापित स्वायत्त कैथोलिक सेटन हॉल यूनिवर्सिटी में अनिवार्य पाठय़क्रम के तहत गीता के अध्ययन को शामिल करने का फैसला किया गया है।

महान वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि “जब मैंने गीता पढ़ी तब मैनें विचार किया कि कैसे ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड कि रचना की है, तो मुझे बाकी सब कुछ व्यर्थ प्रतीत हुआ। श्रीमद्भगवद्‌गीता में मानव की आत्मा का गहन प्रभाव है, जो इसके कार्यों में झलकता है।”

रवि तिवारी के शब्दों में वेदों की शिक्षा पर एक दृष्टिपात:

हमारे देश भारत ने 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्ति पाई। परन्तु वह आजादी मात्र शारीरिक एवं भौतिक ही थी। वैचारिक तौर पर समस्त भारत स्वतन्त्र प्राप्ति से लेकर आज तक गुलाम ही है, आज भी भारत में मैकाले द्वारा बनाया गया पाठ्यक्रम लागू होना इस बात को सिद्ध करता है। भारत के गुरुकुल में जो शिक्षा दी जाती थी, वह आज की शिक्षा से उत्तम थी। ऐसे क्यों? आज की शिक्षा में हमें सिर्फ सांसारिक ज्ञान दिया जाता है और सांसारिक ज्ञान की भी उस स्तर का दिया जाता है जिससे हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में वैचारिक स्तर पर पीछे ही छूटते चले जा रहे हैं। भारत की वर्त्तमान शिक्षा प्रणाली उस स्तर की नहीं है जिससे हम विश्व के अन्य विकसित देशो के युवाओं के समकक्ष पतिस्पर्धा में स्वयं को खड़ा पा सके। 

जैसा कि हमारे वेदों में कहा गया है कि शिक्षा दो प्रकार की होती है- 1. विद्या 2. अविद्या। विद्या का अर्थ होता है स्वयं को जानने का प्रयास जिसे हम अध्यात्म भी कहते हैं, अध्यात्म का अर्थ होता है अधि और आत्म यानि स्वयं को और अधिक जानना ही अध्यात्म है। अविद्या का अर्थ होता है अपने को आलावा बाकी सांसारिक ज्ञान अर्जित करने को अविद्या कहा जाता है। दोनों ही चीजे एक-दूसरे से परस्पर जुडी हुई हैं। वेद आगे कहते हैं कि एक सफल और बोधपूर्ण जीवन जीने के लिए विद्या और अविद्या दोनों ही प्रकार का ज्ञान आपके पास होना चाहिए। ऋषि कहते हैं कि अगर आपने एक घास के तिनके को भी समझ लिया तो आपने समस्त संसार को समझ लिया और अगर आपको पूरे संसार की क्रियाशीलता को समझना है तो आपको स्वयं को समझना होगा।

यहाँ पर रवि तिवारी (Ravi Tiwary) ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि कांग्रेस शासन द्वारा जारी किये गए मैकाले शिक्षा पद्धति में दोनों प्रकार की शिक्षाओं का ही हमें सम्पूर्ण आभाव देखने को मिलता है। आजादी के समय हुए मजहबी दंगों के कारण भारत को सनातन धर्म के मूल्यों और शिक्षाओं से इस तरह वंचित कर दिया कि आज भी हमें शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक ग्रंथो के पढ़ने की आजादी नहीं है। लोग कहते है कि यह धार्मिक ग्रन्थ काफी पुराने हो चुके है और वर्त्तमान दौर में इसकी कोई प्रासंगिकता शेष नहीं है।

उन मूर्खो को यह नहीं पता कि आज भी हमारे देश के सरकारी संस्थानों में ‘सत्यमेव जयते’ लिखा हुआ मिलता है जो कि हमारे प्राचीन ग्रन्थ मुण्डक उपनिषद् से लिया गया है। दूरदर्शन की टैगलाइन ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ प्राचीन ग्रन्थ कठोपनिषद से लिया गया है। अदालतों में आज भी भगवद्गीता पर हाथ रखकर बयान दिलाये जाते हैं। हमने हमारे धार्मिक ग्रंथो से दूरी बनाकर हीरे जैसे आत्मज्ञान से स्वयं को वंचित कर लिया जबकि शेष विश्व ने उन्ही ग्रंथो से प्रेरणा लेकर हमारे ऊपर ही शासन किया और अग्रणी बन गए।

क्यों पढ़ना चाहिए सनातन ग्रंथों को?

हमारे महान सनातन धर्म का केंद्रीय दर्शन वेदांत हैं, जिसका मूल प्रश्न ही यही है कि “कोहम” अर्थात मैं कौन हूँ। क्योंकि अंत में आकर सारे यक्ष प्रश्नों का सार इसी एक प्रश्न में निहित है। हमारे सामने जो सम्पूर्ण प्रकृति है वही हमारे अंदर की उत्सुकता का कारण है। यह नदियाँ, पहाड़, धरती, आसमान, पेड़-पौधे तो चलकर नहीं आते यह प्रश्न पूछने कि बताओ हम कौन हैं, हम इंसान की सब कुछ जानने का प्रयास करते रहते हैं। तो वैदिक ऋषियों ने सारी शुरुआत यहीं से करने का निर्णय लिया कि मैं कौन हूँ? 

सारे प्रश्न तो हम ही पूछते हैं, जिज्ञासा तो हमारे ही मन में उत्पन्न हो रही है। यदि स्वयं को जान लिया तो समस्त संसार को जान लिया। आप पाएंगे जितने भी इतिहास में महान वैज्ञानिक हुए उन्होंने इस जीवन और संसार की गुत्थी को सुलझाने के प्रयास में उपनिषद और गीता का भी भरपूर पाठ करते हुए सहयोग लिया। क्योंकि इस संसार को समझने की दिशा में एक ईमानदार प्रयास बिना स्वयं को जानने की जिज्ञासा के पूर्ण नहीं हो सकता है। इसलिए सारे वैज्ञानिक स्वयं को जानने के लिए (कोहं, अर्थात मैं कौन हूँ) उपनिषदो का पाठ करते हैं। क्योंकि इस प्रश्न की सबसे सुन्दर एवं तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति हमें वेदांत में ही मिलती है।

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